समर्थक

Wednesday 19 February 2014

"वर्चस्व स्वीकार करने से कतरा रहें हैं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

स्वीकार करने से कतरा रहें हैं सब!
     क्या समाचार चैनल? क्या राजनीतिक दल? सभी आप की लोकप्रियता को देखकर बेचैन हो रहे हैं। परन्तु स्वीकार करने से कतरा रहे हैं। विचारणीय प्रश्न है कि ऐसा क्यों?
     आम आदमी आज आम के साथ जाने का मन बना चुका है। इसीलिए आप के साथ आम आदमियों का लगाव और जुड़ाव बढ़ गया है। लेकिन कुछ लोग आज भी लकीर के फकीर बने हुए हैं। स्वतन्त्रता के पश्चात दो बड़े दलों और कई दशकों से क्षेत्रीय दलों को के दंश को सहते-सहते आम आदमी आज परेशान-निराश और हताश हो चुका है।
देश के आजाद होने के बाद जन-गण-मन को आशा की एक किरण दिखाई दी थी कि अपना सुराज होगा, भ्रष्टाचार-रिश्वतखोरी, हत्या और लूट-पाट से निज़ाद मिलेगी परन्तु ऐसा हो न सका और जनता ठगी हुई यह सब देखती रही।
      राजनीतिक दलों में प्रजातन्त्र के स्थान पर परिवारवाद ने अपनी जड़ें पुख़्ता करलीं। धनबल और बाहुबल से मतदान होने लगा, जिसके कारण साफ-सुथरे लोग पिछड़ते चले गये और सत्ता पर छँटे हुए लोगों का क़ब्ज़ा होता चला गया। इसीलिए मँहगाई अपने पाँव पसारती चली गयी। जिनको अर्थशास्त्री की उपाधि से विभूषित किया था वो वास्तव में अर्थशास्त्री ही निकले और अपने देश में अर्थ का युग साकार दिया।
ऐसे में उदय हुआ आम आदमी पार्टी (आप) का। जिसने दिल्ली में विधानसभा का चुनाव पहलीबार लड़ा और यह साबित कर दिया कि आम अगर मैदान में उतर जाये तो खास की हालत खराब कर देगा। परिणाम इसकी पुष्टि करता है कि सत्तादल की मुख्यमन्त्री भी अपनी सीट नहीं बचा पायी और जिसे अदना सा आम आदमी समझा था उससे परास्त हो गयी।
     आज भी दलील तो सभी पुराने दिग्गज देने में लगे हैं। मगर भयभीत हैं आम से। क्योंकि वो स्वयं भी यह जानते हैं कि वो सुधरनेवाले नहीं हैं। जनता के धन पर शुरू से ही डाका मार कर सड़कछाप आज अरबों की सम्पत्ति के स्वामी बन बैठे हैं वो भला भविष्य में अपनी आदत को कैसे बदल पायेंगे?
इस सन्दर्भ में मुझे एक संस्मरण याद आ रहा है-
     “लगभग 4 साल पुरानी बात है एक सज्जन सरकारी नौकरी में रहते हुए करोड़ों रुपये अनैतिक रूप से कमाकर सेवानिवृत्ति के पश्चात अपने नगर में आ गये। थोड़े ही दिन में उन्होंने समाज में अपनी घुसपैठ भी करली और एक जनकल्याण संस्था का गठन कर लिया। लोगों ने इसमें ज खोलकर अपना आर्थिक सहयोग दिया। यह देखते ही इन महापुरुष क नीयत बदल गयी और संस्था का सारा धन डकार गये। दस-पाँच हजार रुपये खर्च करके एक-दो छोटे कार्यक्रम किये और लाखों का फर्जी बिल बना दिया कर संस्था को दिवालिया कर दिया।
    इसके बाद जब देखा कि समाज में छवि खराब हो गयी है तो इन्होंने जातिवाद को बढ़ावा देकर जातिविशेष की समिति गठित कर ली। लोगों से जाति के नाम पर दिलखोलकर दान-चन्दा लिया और एक दो बार बिरादरी की दावत करके लाखों का चन्दा यहाँ से भी हजम कर लिया।"
कहने का तात्पर्य यह है कि जिनके मुँह खून लग जाता है 
वो दाल-रोटी में कैसे सन्तोष कर सकते हैं।
      आज छोटे-बड़े तमाम राजनतिज्ञों का यही हाल है। वाक्पटुता से जनता पर डोरे डाले जा रहे हैं। प्रजा को सब्ज़बाग दिखाये जा रहे हैं। लेकिन क्या ये अपनी आदत बदल पायेंगे।
ऐसे मैं आम जनता ने आप की झाड़ू को थाम कर भ्रष्टाचार और रिश्वत खोरी के खिलाफ वोट करने का मन बना लिया है।
      अन्त में एक बात और कहना चाहँगा कि यदि कोई नया दल भ्रष्टाचार, रिश्वत खोरी, अत्याचार-अनाचार से लड़ने के लिए तैयार हो रहा है तो उसका विरोध इसलिए क्यों कि हम अमुक....दल के व्यक्ति हैं इसलिए विरोध करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।
मित्रों! इतना अवश्य ध्यान रखिए कि कोई भी दल आपके हाथों में सोने के कंगन नहं पहनायेगा। आप जो कार्य कर रहे हैं वही करते रहेंगे और अपना व अपने परिवार का पेट पालते रहेंगे।
    पुराने राजनीतिक आज तक भाषणबाजी ही तो करते रहे हैं। 
जबकि अधिकांश लिप्त हैं भोली जनता को ठगने में।
      एक बात मेरी समझ में अब तक नहीं आ सकी है कि जब आप (आम आदमी पार्टी) का कोई वजूद राजनतिक दल और चैनल वाले मानने को तैयार ही नहीं हैं तो बार-बार आप का जिक्र और चर्चाएँ क्यों की जा रही हैं। यह साबित करता है कि आम का वजूद है और सारे दल आज भयभीत हैं आप से। भारतीयता का दम भरने वाली धर्मविशेष की राजनीति करने वाली पार्टी और गान्धी जी की विरासत सम्भाल रही खास पार्टी तो आज आम से खासी भयभीत दिखायी देती है। ऐसे में कुनबे पर आधारित दलों का भले ही स्पष्टरूप से कोई विरोध न हो लेकिन भयभीत तो वो भी हैं ही। यह बात अलग है कि उन्हें इस बात से कुछ सान्त्वना इसलिए मिलती प्रतीत हो रही है कि दो राष्ट्रीय दलों का कुछ वोटबैंक खिसकेगा तो उसका प्रसाद शायद उनके हिस्से में भी आयेगा।
       दोस्तों! मेरा किसी दलविशेष से कोई लगाव नहीं है लेकिन इतना अवश्य है कि जो भ्रष्टाचार मुक्त शासन की बात करेगा मैं उसके साथ हमेशा रहूँगा।

Saturday 15 February 2014

"बाबा नागार्जुन और डॉ.रमेश पोखरियाल 'निशंक'..." (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

      बात 1989 की है। उन दिनों बाबा नागार्जुन खटीमा प्रवास पर थे। उस समय खटीमा में डिग्री कॉलेज में श्री वाचस्पति जी हिन्दी के विभागाध्यक्ष थे। बाबा उन्हीं के यहाँ ठहरे हुए थे। 
वाचस्पति जी से मेरी मित्रता होने के कारण बाबा का भरपूर सानिध्य मुझे मिला था। अपने एक महीने के खटीमा प्रवास में बाबा प्रति सप्ताह 3 दिन मेरे घर में रहते थे। वो इतने जिन्दा दिल थे कि उनसे हर विषय पर मेरी बातें हुआ करतीं थी।

       मैं उन सौभाग्यशाली लोगों में से हूँ जिसे बाबा नागार्जुन ने अपनी कई कविताएँ स्वयं अपने मुखारविन्द से सुनाईं हैं। "अमल-धवल गिरि के शिखरों पर बादल को घिरते देखा है" नामक अपनी सुप्रसिद्ध कविता सुनाते हुए बाबा कहते थे- "बड़े-बड़े हिन्दी के प्राध्यापक मेरी इस कविता का अर्थ नही निकाल पाते हैं। मैंने इस कविता को कैलाश-मानसरोवर में लिखा था। झील मेरी आँखों के सामने थी। और वहाँ जो दृश्य मैंने देखा उसका आँखों देखा चित्रण इस कविता में किया है।"
जब बाबा की धुमक्कड़ी की बात चलती थी तो बाबा जयहरिखाल (लैंसडाउन-दुगड्डा का नाम लेना कभी नही भूलते थे। उन्होंने वहाँ 1984 में जहरीखाल को इंगित करके अपनी यह कविता लिखी थी-
"मानसून उतरा है
जहरीखाल की पहाड़ियों पर"

बादल भिगो गये रातों-रात
सलेटी छतों के 
कच्चे-पक्के घरों को
प्रमुदित हैं गिरिजन

सोंधी भाप छोड़ रहे हैं
सीढ़ियों की
ज्यामितिक आकृतियों में 
फैले हुए खेत
दूर-दूर
दूर-दूर
दीख रहे इधर-उधर
डाँड़े की दोनों ओर
दावानल दग्ध वनांचल
कहीं-कहीं डाल रही व्यवधान
चीड़ों की झुलसी पत्तियाँ
मौसम का पहला वरदान
इन तक भी पहुँचा है

जहरीखाल पर 
उतरा है मानसून
भिगो गया है 
रातों-रात
इनको
उनको
हमको
आपको
मौसम का पहला वरदान
पहुँचा है सभी तक"
        जब भी जहरीखाल का जिक्र चलता तो बाबा एक नाम बार-बार लेते थे। वो कहते थे-"शास्त्री जी! जहरी खाल में एक लड़का मुझसे मिलने अक्सर आता था। उसका नाम कुछ रमेश निशंक करके था वगैरा-वगैरा....। वो मुझे अपनी कविताएं सुनाने आया करता था।"
उस समय तो बाबा ने जो कुछ कहा मैंने सुन लिया। मगर मन में विचार किया कि होगा कोई नवोदित! 
       आज जब बाबा के संस्मरण को याद करता हूँ तो बात खूब समझ में आती है।
      जी हाँ! यह और कोई नही था जनाब! यह तो रमेश पोखरियाल "निशंक" थे।
       कौन जानता था कि बाबा को जहरीखाल में अपनी कविता सुनाने वाला व्यक्ति एक दिन उत्तराखण्ड का माननीय मुख्यमऩ्त्री डॉ.रमेश पोखरियाल "निशंक" के नाम से जाना जायेगा।