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Thursday 1 December 2011

"सैर-सपाटा और भारत बन्द" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")

कल भारत बन्द था। इसलिए हमने भी सोचा कि छुट्टी के दिन सैर-सपाटा ही हो जाए। तभी मेरे मित्र और सरस पायस के सम्पादक रावेंद्रकुमार रवि और उनकी पत्नी शोभा भी हमारे घर आ गये। 
पिकनिक का नाम सुनकर वे भी हमारे सात हो लिए। श्रीमती जी भी तैयार हो गई और हमारी पोती प्राची भी कार में बैठ गई।


सबसे पहले हम लोग गये अपने नानकमत्ता स्थित आवास पर। जो बहुत दिनों से बन्द पड़ा था। ताला खोलकर हमने उसकी साफ-सफाई की और अब रुख़ किया नानकमत्ता साहिब गुरूद्वारे का! 
थोड़ी देर के लिए हम गुरूद्वारा प्रबन्धक कमेटी के दफ्तर में भी गये।। 

  अब हम लोगों ने गुरूद्वारे के परिसर में स्थित 
प्राचीन पीपल के वृक्ष (पीपल साहिब) के भी दर्शन किये। 
जिसके साथ में गुरूद्वारे का पवित्र सरोवर 
अपनी पावनता से मन को लुभा रहा था।
गुरूद्वारे का लंगर हाल भी बहुत विशाल है। 
यहाँ प्रतिदिन दोनों समय लंगर चलता है।
लंगर छकने के बाद हम लोग गये बाउली साहिब।
यहाँ गुरू नानक देव जी ने जमीन में फावड़ा मार कर
फाउड़ी गंगा की धारा प्रवाहित की थी।
सन्1965 में नानक सागर बाँध का निर्माण होने पर 
यह स्थान अब नानकसागर के वीच में आ गया है। 
मगर इसके ऐतिहासिक महत्व को ध्यान में रखते हुए 
सरकार ने एक पुल बना कर इस स्थान के दर्शन करने की 
सुविधा कर दी थी।
बाउली साहब के पास जाने पर सीढ़ियों के समीप ही 
हमने अपनी कार पार्क कर दी।
यहाँ पर दो पिल्ले हमारे स्वागत में खड़े थे।
इस पिल्ले की आँखों में कितनी ममता है।
यह देख रहा है कि लोग यहाँ आयेंगे और इसे कुछ खाने को देंगे।
यहाँ पर यात्री नाव भी हैं जो नानकसागर के पार बसे 
गाँव में लोगों को लाते पहुँचाते हैं।
इस नाविक की टूटी हुई नाव में पानी भर गया है 
और यह डब्बे लेकर नाव में से पानी उलीच रहा है।
रावेन्द्र कुमार रवि इन नज़ारों को देख रहे हैं!
साथ में इनकी धर्मपत्नी शोभा भी हैं।
ये हैं बाउली साहिब के भीतर के दृश्य!
श्रीमती अमर भारती और शोभा
मेरे साथ मेरी श्रीमती जी और बीच में मेरी पोती प्राची।
अगम जल से भरा हुआ नानक सागर!
 
अब दिन ढलने को है!
चलो घर को चलते हैं।
नानक मत्ता साहिब
दिल्ली से 270 किमी,
मुरादाबाद से 140 किमी,
बरेली से 100 किमी दूर है
और मेरे घर खटीमा से 
मात्र 15 किमी दूर है।
हैप्पी ब्लॉगिंग!
हिन्दी चिट्ठाकारी की जय हो!!

Wednesday 16 November 2011

"मयंक की पुस्तकों का विमोचन"

      


14 नवम्बर, 2011 को बालदिवस के अवसर परखटीमा पब्लिक स्कूल एशोसियेसन के द्वारा एक विशाल बाल मेले का आयोजन किया गया। जिसमें एशोसियेसन से जुड़े 53 विद्यालयों के छात्र-छात्राओं द्वारा रंगा-रंग कार्यक्रमों का भी आयोजन किया गया। कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथियों के रूप में माननीय पुष्कर सिंह धामी उपाध्यक्ष-शहरी विकास एवं अनुश्रवण परिषद, (राज्य मन्त्री, उत्तराखण्ड सरकार) और खण्ड शिक्षा अधिकारी श्री डी.एस.राजपूत पधारे।
बालदिवस के अवसर पर 20 हजार लोगों की उपस्थिति में खटीमा पब्लिक स्कूल एशोसियेसन के अध्यक्ष डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक द्वारा रचित दो पुस्तकों "हँसता गाता बचपन" (बाल कविता संग्रह) और "धरा के रंग" (कविता संग्रह) का लोकार्पण किया गया। जिसका संचालन स्थानीय हेमवतीनन्दन बहुगुणा राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. सिद्धेश्वर सिंह ने किया। इस अवसर पर माननीय पुष्कर सिंह धामी उपाध्यक्ष-शहरी विकास एवं अनुश्रवण परिषद, (राज्य मन्त्री, उत्तराखण्ड सरकार) मा. राजू भण्डारी (प्रदेश उपाध्यक्ष-भा.ज.पा) मा. रंदीप सिंह पोखरिया (प्रदेश प्रभारी-हिंदू.जा.म.), मा. महेश चन्द्र जोशी (पूर्व प्रदेश सं.मन्त्री, कांग्रेस) मा. प्रकाश तिवारी (प्रदेश अध्यक्ष-किसान कांग्रेस) श्री डी.एस.राजपूत (खण्ड शिक्षा अधिकारी), डॉ. गंगाधर राय (हिन्दी प्रवक्ता-राजकीय इंटर कालेज, खटीमा), सरस पायस के सम्पादक श्री रावेंद्रकुमार रवि, पुस्तकों की प्रकाशक श्रीमती आशा शैली, लब्धप्रतिष्ठित वरिष्ठ कवि देवदत्त प्रसूनरूमानी शायर गुरू सहाय भटनागर बदनाम, कोषाध्यक्ष-मोहन चन्द्र मुरारी तथा एशोसियेसन के समस्त पदाधिकारी उपस्थित थे।
इस अवसर पर वरिष्ठ समाज सेवी एस सी उपाध्याय डॉ. शास्त्री को शॉल ओढ़ाकर सम्मानित किया। अपने सम्बोधन में एशोसियेसन के सचिव श्री नीरज कुमार ने कहा- "आज हमें खटीमा पब्लिक स्कूल एशोसियेसन के अध्यक्ष डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक" को सम्मानित करते हुए बहुत गर्व और हर्ष का अनुभव हो रहा है।
     डॉ. गंगाधर राय ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा- जनवरी 2011 में डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक" की दो पुस्तकें सुख का सूरज और नन्हे सुमन प्रकाशित हुईं थी और इसके ठीक नौ माह के उपरान्त अक्टूबर, 2011 में दीपावली के पावन अवसर पर पुनः उनकी दो पुस्तकें "हँसता गाता बचपन" (बाल कविता संग्रह) और "धरा के रंग" (कविता संग्रह) प्रकाशित हुईं हैं। यह उनकी सृजन क्षमता का जीता जागता उदाहरण है।
     इस अवसर पर सरस पायस के सम्पादक श्री रावेंद्रकुमार रवि ने कहा कि मैं अक्सर मयंक जी के पास बैठता हूँ और उनकी रचनात्मक क्षमता देखकर हतप्रभ हो जाता हूँ। 62 वर्ष की आयु में भी वे बिल्कुल युवाओं की भाँति ब्लॉगिंग में संलग्न रहते हैं। उनके पास तो अभी इतना साहित्य है कि उनकी अभी एक दर्जन किताबें और प्रकाशित होने के बाद भी काफी रचनाएँ बाकी रह सकती हैं।
     खण्ड शिक्षा अधिकारी श्री डी.एस.राजपूत ने अपने सम्बोधन में कहा कि शास्त्री जी से मेरा पहली बार परिचय हुआ है और में इनकी काव्यकला का कायल हो गया हूँ। बड़े पदों पर रहने के बाद भी डॉ. मयंक में आज भी सहजता है और वे बहुत ही आत्मीयता के छोटे बड़े हर तबके के लोगों से मिलते हैं।
     डॉ. शास्त्री की पुस्तकों की प्रकाशक श्रीमती आशा शैली (आरती प्रकाशन, लालकुँआ, नैनीताल) ने अपने वक्तव्य में कहा कि डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक" एक सरल, सभ्य और संस्कारवान लेखक हैं। मैं उनकी पुस्तकों को प्रकाशित करके बहुत ही गौरव का अनुभव कर रही हूँ!
     हेमवतीनन्दन बहुगुणा राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. सिद्धेश्वर सिंह ने इस अवसर पर कहा कि बालदिवस, बालमेला और बालकों के बीच में बालकविताओं की पुस्तक "हँसता गाता बचपन" और "धरा के रंग" (कविताए-संग्रह) का लोकार्पण एक सुखद संयोग है।
     मुख्यअतिथि के रूप में पधारे माननीय पुष्कर सिंह धामी उपाध्यक्ष-शहरी विकास एवं अनुश्रवण परिषद, (राज्य मन्त्री, उत्तराखण्ड सरकार) ने अपने सम्बोधन में कहा कि जनवरी में मेरे विवाह समारोह में भी डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक" की दो पुस्तकों सुख का सूरज और नन्हे सुमन का विमोचन उत्तराखण्ड के तत्कालीन यशस्वी मुख्यमन्त्री मा. डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक ने किया था। यह मेरा सौभाग्य है कि आज मुझे
डॉ.शास्त्री की पुस्तकों "हँसता गाता बचपन" और "धरा के रंग" (कविता-संग्रह) का लोकार्पण मेरे द्वारा किया जा रहा है। मैं कामना करता हूँ कि शास्त्री जी की पुस्तकें लगातार प्रकाशित होती रहें और खटीमा का नाम विश्व में रौशन होता रहे।
     भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष मा. राजू भण्डारी ने अपने सम्बोधन में कहा कि मैं अपने गुरुवर डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री की छत्रछाया में ही पला और बड़ा हुआ हूँ। मुझे यह देख कर बहुत प्रसन्नता हो रही है कि मेरे ही गाँव अमाऊँ के निवासी और गुरुदेव शास्त्री जी की पुस्तकों का आज बलदिवस के पावन पर्व पर विमोचन किया गया है। इस अवसर पर मैं अपनी शुभकामनाएँ व्यक्त करता हूँ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक ने इस विमोचन समारोह में लोकार्पण की गई पुस्तकों  "हँसता गाता बचपन" और "धरा के रंग" से कुछ कविताओं का वाचन भी किया एवं इस अवसर पर पधारे सभी अतिथियों का आभार व्यक्त करते हुए बालदिवस की शुभकामनाएँ दीं।

Saturday 5 November 2011

"कविता के सुख का सूरज" (डॉ. सिद्धेश्वर सिंह)

       डॉ. सिद्धेश्वर सिंह हिन्दी साहित्य और ब्लॉग की दुनिया का एक जाना-पहचाना नाम है। जब कभी विद्वता की बात चलती है तो डॉ. सिद्धेश्वर सिंह को कभी अनदेखा नहीं किया जा सकता है। कर्मनाशा ब्लॉग पर इनकी लेखनी के विविध रूपों की झलक हमको मिलती है। हिन्दी का प्रोफेसर होने के साथ-साथ इनकी अंग्रेजी पर भी समानरूप से पकड़ है। विदेशी भाषा के साहित्यकारों की रचनाओं के इन्होंने बहुत ही कुशलता से दर्जनों अनुवाद किये हैं।
       यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे इनका सानिध्य अक्सर मिलता रहता है। मेरी पुस्तक 'सुख का सूरज' की भूमिका लिखकर इन्होंने मुझे कृतार्थ किया है। जिसके लिए मैं इनका आभारी हूँ। आपके साथ मैं इस पुस्तक की भूमिका को साझा करते हुए बहुत हर्ष हो रहा है!
कविता के सुख का सूरज
शब्द कोई व्यापार नहीं है।
तलवारों की धार नहीं है।

 भूमिका

      आज, ऐसे समय में जब हमारे निकट की दुनिया में विद्यमान लगभग प्रत्येक विचार व वस्तु को उपादेयता की कसौटी पर कस कर देखे जाने का चलन आम होता जा रहा है और तात्कालिकता को एक मूल्य की तरह बरते जाने में कोई संकोच नहीं रह गया है व  कविता के लिखने-पढ़ने-सुनने-गुनने वालों के सीमित संसार में शब्द की अर्थवत्ता को लेकर बहुत गंभीरता से सोचा जाना कोई जरूरी सवाल नहीं दीखता हो वहाँ यदि कहीं  कुछ भला, सुन्दर तथा सदाशयता से पूरित अथवा उसकी ऐषणा करता हुआ-सा मिल जाता है तो इस बात पर यकीन पुख्ता होता है कि सोच एवं सृजन की सदानीरा का उद्गम जिन पहाड़ों के पार है वहाँ का हिमनद तमाम तरह की प्रतिकूलताओं के बावजूद विलोपित नहीं होगा अपितु सूरज की ऊष्मा से ऊर्जा ग्रहण कर अनंत काल तक बूँद-बूँद रिसता हुआ  स्वच्छ-जीवनदायी जल में रूपायित होता रहेगा।
आज प्रायः देखने को मिल जाता है कि हिन्दी कविता में शब्दों के करघे पर बहुत महीन कताई हो रही है। आजकल कभी-कभार तो ऐसा भी दिखाई दे जाता है कि कताई-बुनाई के अतिशय मोह में संवेदनाओं के सहज तंतु कहीं अदृश्य से हो गए हैं ऐसे में सहज ही उन कविताओं की स्मृति होने लगती है जिनके सानिध्य में हम सब का बालपन बीता है। आखिर ऐसी कौन सी बात रही है उन कविताओं में कि समय की शिल्प पर अंकित उनकी छाप अमिट है? इस प्रश्न के उत्तर में दो बातें समझ में आती हैं। पहली तो यह कि उनमें व्यक्त सहजता का सरल प्रस्तुतिकरण और दूसरी उनकी गेयता-लयात्मकता। ये दोनो चीजें कविता को एक प्रस्तुति-कला में ढाल देने के लिए सहज हैं और संप्रेषणीयता की संवाहिका भी। सुख का सूरजसंग्रह की कविताओं में निहित भाव व विचार की सहजता तथा लयात्मक संप्रेषणीयता का समन्वय इसे आज के हिन्दी कविता-संसार में अपनी-सी भाषा में कही जाने वाली अपनी-सी बात के रूप में कविता प्रेमियों को आकर्षित करने के लिए पर्याप्त है।
          सुख का सूरजमें संकलित कविताओं की  विविधवर्णी छवियाँ हैं। इनमें जहाँ एक ओर वंदना-आराधना, अनुनय-विनय, राग-अनुराग, मान-मनुहार और प्रकृति-परिवेश की कोमल काया वाली कवितायें हैं वहीं दूसरी ओर कवि मयंकदेश -दुनिया में व्याप्त मोह-व्यामोह से उपजी स्वार्थपरता व शुभ, शुचि, सुंदर के प्रति तिरोहित होते मान-सम्मान से उपजी खिन्नता व आक्रोश को वाणी देते हुए एक सुन्दर तथा बेहतर दुनिया की तलाश की छटपटाहट में रत दिखाई देते हैं।

आज भी लोगों को पावस लग रही है।
चाँदनी फिर क्यों अमावस लग रही है?

          कवि मयंककी कविताओं में एक चीज जो सबसे अधिक आकर्षित करने वाली है वह है निराशा का अभाव। कविता में प्रायः ऐसा होता देखा जाता है कि प्रेम अंततः पीड़ा में परिवर्तित हो जाता है और आक्रोश नैराश्य की शरण में पलायन कर अपना एक ऐसा संसार रच लेता है जो इसी दुनिया में होता हुआ भी इसी दुनिया से दूरी बनाने को अपना ध्येय मान लेता है लेकिन सुख का सूरजकी कविताओं में पीड़ा में ही प्रियतम की तलाश का आभास नहीं है अपितु इन कविताओं में इसी दुनिया में निवास करने वाले मनुष्य देहधरी दो प्राणियों के अंतस में अवस्थित अनुराग को स्वर देने की सहजता है और प्रतिकूलताओं-प्रपंचों की निन्दा-आलोचना से आगे बढ़कर एक नये सुखमय,  सौहार्द्रपूर्ण संसार की रचना के प्रति विश्वास व क्रियाशीलता का स्पष्ट आग्रह दिखाई देता है।

लक्ष्य है मुश्किल बहुत ही दूर है।
साधना मुझको निशाना आ गया है।

हाथ लेकर हाथ में जब चल पड़े ,
साथ उनको भी निभाना आ गया है।

          डॉ.. रूपचंद्र शास्त्री मयंक  एक सहज, सरल, सहृदय व्यक्ति हैं। उनके पास राजनीतिक-सामाजिक जीवन का सुदीर्घ अनुभव है। जीवन व जगत वैविध्यता को उन्होंने खूब देखा-परखा है।  एक साहित्यकार और ब्लॉगर के रूप में भी वे सबके सुपरिचित हैं। यह उनकी उदारता व स्नेह ही है कि मुझे इस संग्रह की पांडुलिपि को पढ़ने का सुख  मिला है तथा  दो शब्दलिखने का सौभाग्य। सुख का सूरज उनकी चुनिंदा कविताओं का ऐसा संग्रह है जो द्रुत गति से भाग रहे कुहरीले दिवस के क्षितिज पर सूरज की तरह उदित होकर साहित्य प्रेमियों को सुख देगा और रचना की रात्रि के पटल पर उनके उपनाम मयंक की सार्थकता को सिद्ध करेगा और अंत में स्वयं कवि के ही शब्दों में बस यही कहना है- 

पथ आलोकित है, आगे को बढ़ते जाओ।
उत्कर्षों के उच्च शिखर पर चढ़ते  जाओ।

-         सिद्धेश्वर सिंह
21नवंबर, 2010
(डॉ. सिद्धेश्वर सिंह)
           हिन्दी विभागाध्यक्ष:राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय
खटीमा, जिला-ऊधमसिंहनगर (उत्तराखण्ड)

Thursday 20 October 2011

"हिन्दी ब्लॉगिंग का इतिहास : एक समीक्षा" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")

हिन्दी ब्लॉगिंग का इतिहास : एक समीक्षा
छः महीनों के लम्बे इन्तज़ार के बाद प्रियवर रवीन्द्र प्रभात जी द्वारा लिखित और हिन्दी साहित्य निकेतन, बिजनौर द्वारा प्रकाशित पुस्तक हिन्दी ब्लॉगिंग का इतिहास मुझे प्राप्त हुई। जिसको बहुत ही परिश्रम के साथ हिन्दी ब्लॉगिंग के शैशवकाल से लेकर जवान होने तक के काल को विद्वान लेखक ने दर्शाया है।
समीक्षा की दृष्टि से यदि देखा जाए तो इसमें कुछ लोगों की गतिविधियों को तो अनावश्यकरूप से बहुत बढ़ा-चढ़ा कर भी प्रस्तुत किया है और इसमें कोई हानि भी नहीं है। लेकिन बच्चों के ब्लॉगों को प्रस्तुत करने में इस पुस्तक में बहुत कृपणता बरती गई है। उल्लेखनीय है कि नियमितरूप से सक्रिय बच्चों के बहुत से ब्लॉगों - चैतन्य का कोना, स्पर्श, पंखुरी टाइम्स, पार्थवी, रुद्र, लाडली, लविजा, गोलू गाए बुलबुल नाचे, लेखिका, बालवृन्द, चुन-चुन गाती चिड़िया, फुलबगिया, मन के रंग, बाल सभा, मानसी की दुनिया, नन्हे पंख, अनुष्का, बच्चों की दुनिया, स्वप्निल संसार, टाबरटोली आदि का तो इसमें जिक्र तक नहीं है।
इसकी क्रम में सन् 2003 से 2011 तक रिकार्ड पोस्ट लगाने वाले किसी भी ब्लॉग की ओर विद्वान लेखक का ध्यान हीं गया है। इसके बाद यदि बात करें ब्लॉगर मीट या ब्लॉगर सम्मेलन की तो इस पर भी कोई विशेष प्रकाश इस पुस्तक में नहीं डाला गया है।
आलोक कुमार जी के नौ दो ग्यारह से लेकर 2010 तक के चिट्ठों को सम्मिलित करके, एक पुस्तक का रूप देना अपने आप में एक महत्वपूर्ण कार्य था जिसे श्री रवीन्द्र प्रभात जी ने पूरा कर दिखाया है। इसके लिए वे धन्यवाद के पात्र हैं।
इस सम्बन्ध में इतना ही कहना चाहूँगा कि लेखक सर्वव्यापी या सर्वशक्तिमान नहीं होता है, इसलिए सभी बिन्दुओं पर चर्चा करना सम्भव नहीं हो पाता है। वर्तमान कल का इतिहास होता है और इसको जिस प्रकार से हिन्दी ब्लॉगिंग का इतिहास में प्रस्तुत किया गया है वह एक सराहनीय प्रयास है। मैं समझता हूँ की हिन्दी ब्लॉगिंग का इतिहास हिन्दी ब्लॉगरों के लिए एक धरोहर से कम नहीं है। जिसको सभी ब्लॉगरों पास होना चाहिए।

Friday 23 September 2011

"नये नेता का चुनाव" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")


"नये नेता का चुनाव"
नये नेता का चुनाब यह वाक्य सुनने में कितना अच्छा लगता है। भारत के किसी राज्य में जब भी कोई बहुमत वाला राजनीतिक दल अपने नए नेता का चुनाव करवाता है तो बड़े बेमन से विधायकों को नेता के चुनाव पर अपनी मुहर लगाना होता है। क्योंकि नेता का चयन तो हाईकमान पहले से ही कर देता है। लेकिन हमने रीति ही ऐसी बना ली है कि मजबूरी में यह सब करना पड़ता है और हाईकमान के फैसले को झेलना पड़ता है।
इस पर बहुत से प्रश्न दिमाग में कौंधने लगते हैं।
क्या एक लोकतान्त्रिक देश में यह प्रक्रिया शोभनीय है?
क्या राजनीतिक दल द्वारा थोपा गया फैसला विधायकों का अपना फैसला होता है?
क्या विधायकों को अपनी पसंद का नेता चुनने का भी हक नहीं है?
क्या इससे दलगत राजनीति में असन्तोष समाप्त होगा?
इन प्रश्नों का उत्तर तो एक ही है कि नेता कभी भी उन विधायकों की पसंद का नहीं होता है जिनके साथ नेता को अपनी सरकार चलानी होती है।
सच तो यह है कि यह ऊपर से थोपा गया नेता पार्टी के हाथों की कठपुतली बना रहता है और अपने मन्त्रिमण्डल के मन्त्रियों के चुनाव करने में भी वह स्वतन्त्र नहीं होता है। छोटी-छोटी बातों के लिए उसे हमेशा केन्द्रीय संगठन तक दौड़ लगानी पड़ती है।
राज्य के हित में लिए जाने वालो फैसलों के लिए भी उसे हाईकमान का मुँह देखना पड़ता है। यही कारण है कि वह कभी भी अपने को स्वतन्त्र महसूस नहीं करता है और अपने दल के विधायकों का चहेता नहीं बन पाता है। क्योंकि उसका चुनाव उसके विधायकों ने नही किया होता है।
विश्व के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश में यह लोकतन्त्र की हत्या नहीं तो और क्या है?
क्या आजादी के 65 वर्ष के बाद भी हम सामन्तवादी युग में नहीं जी रहे हैं?
यदि हमें अपनी प्रजातान्त्रिक छवि अक्षुण्ण रखनी है तो इस प्रथा को बदलना ही होगा। तभी हम दलगत असन्तोष से मुक्त हो सकते हैं।

Wednesday 14 September 2011

"हिन्दी दिवस के साथ कार की भी वर्षगाँठ" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")

आज हिन्दी दिवस के साथ
मेरी कार की भी प्रथम वर्षगाँठ है!
प्रत्येक वर्ष 14 सितम्बर को भारत के लोग हिन्दी दिवस मनाते हैं और हिन्दी के प्रति अपनी श्रद्धा को प्रकट कर देते हैं। उसके बाद पूरे साल वही गिटर-पिटर का टर-टर स्वर आलापते रहते हैं।
आज से 62 वर्ष पूर्व जब महात्मा गांधी जीवित थे 14 सितम्बर, 1949 को भारत की संविधान सभा ने एक मत से निर्णय लिया था कि हिन्दी भारत की राजभाषा कहलाएगी।
इस निर्णय पर राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के अनुरोध पर 1953 से पूरे भारत में 14 सितम्बर को प्रतिवर्ष हिन्दी दिवस मनाया जाने लगा।
मेरी कार की प्रथम वर्षगाँठ


मित्रों! मैंने सन् 2010 में आज के ही दिन मारूति कम्पनी की ज़ेन स्टिलो कार भी खरीदी थी! देखते-देखते एक साल इतनी जल्दी व्यतीत हो गया और मेरी इस प्यारी सी कार की आयु भी एक वर्ष हो गई!
सिर्फ इतना ही नहीं मैंने इसमें स्वयं और परिवार के साथ 4,500 किमी की सुखद यात्रा भी की।


मेरी 6 वर्षीया पोती प्राची को तो यह बहुत पसन्द है। वह स्कूल से आकर इसमें एक बार तो रोज ही बैठ जाती है। कार में बैठकर जब हम लोग इसको साथ ले जाते हैं तो इसका सबसे पहला काम ए-सी चलाना होता है।

Tuesday 6 September 2011

"अच्छी सेहत का राज़" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")


     बहुधा देखा गया है कि लोग 60 साल की आयु में आते-आते बहुत चिड़चिड़े स्वभाव के हो जाते हैं। जिसके कारण उनका तन और मन भी सूखने लगता है। बहुत सी बीमारियाँ भी घेर लेती हैं और दुनिया से मोह भंग होने लगता है। इसके बहुत से परिस्थितिजन्य कारण हो सकते हैं।
कहा जाता है कि स्वस्थ तन में ही स्वस्थ मन वास करता है और इसके लिए कोई अधिक प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है। बस जरूरत है आहार और विहार की। मैं इसको स्पष्ट करने के लिए अपने जीवन से जुड़ी हुई कुछ बातें आपके साथ साझा करना चाहता हूँ।
मेरा जन्म उत्तर-प्रदेश नजीबाबाद के रम्पुरा मुहल्ले में हुआ था। उस समय पिता जी पटवारी के पद पर कार्यरत थे। अतः गुज़ारा आराम से हो जाता था। बाद में चौधरी चरण सिंह मुख्यमऩ्त्री बने। उस समय पटवारियों की हड़ताल चल रही थी। हड़ताल ख़त्म करने के लिए 48 घण्टे का समय दिया गया। लेकिन पिता जी इस अवधि में काम पर नहीं लौटे तो नौकरी से टर्मिनेट कर दिया गया। अब हमारे गर्दिश के दिन शुरू हो गये थे।
माता जी पानी के हाथ की रोटी बनाती थी। कभी-कभी एक सब्जी और अचार तथा कभी अचार के साथ रोटी। यही हमारा खाना और नाश्ता था। फिर शाम को दाल-भात और रोटी। दिन में सब लोग अपने काम में लग जाते थे।
समय बीतता रहा और मैं डॉक्टर बन गया। ईश्वर की कृपा ऐसी रही कि मैं जिस रोगी को दवा देता उसको आराम हो जाता। हमारे अच्छे दिन फिर लौट आये थे। मगर खाना वही गरीबी वाला ही मन में बसा हुआ था। जबकि मेरे पुत्र जिन्होंने कि खाते-पीते परिवेश में आँखें खोली थी। वो आज भी रईसों की तरह ही सुबह 9 बजे नाश्ता लेते हैं, अपराह्न 3 बजे दोपहर का खाना और रात का खाना 9-10 बजे तक खाते हैं।
अरे! अपनी धुन में मग्न हो गया मैं तो और आलेख लम्बा हो गया। किन्तु जिस बात को बताने केलिए यह लेख लिखा वो तो भूल ही गया। अब उसी पर आता हूँ।
लोग पूछते हैं कि शास्त्री आपकी कितनी आयु है। मै सहज भाव से बता देता हूँ कि साठ साल। लोग आश्चर्य करते हैं कि इस उम्र में भी मेरी आँखे-दाँत. कान और शरीर स्वस्थ क्यों है?
चलिए आपको इसका राज़ बता देता हूँ!
मैं सुबह 5 बजे उठता हूँ। शौच आदि से निवृत्त होकर 15-20 मिनट हलका-फुलका सहज योग करता हूँ। स्नान के बाद इण्टरनेट का व्यसन भी कर पूरा लेता हूँ। तब तक श्रीमती जी पानी के हाथ की दो रोटी और चावल ले आती हैं। इसे आप चाहे मेरा नाश्ता कहें या खाना कहें, मैं खा लेता हूँ। वैसे मुझे काले चने मिले हुए पीले चावल बहुत अच्छे लगते हैं। दिन में एक-दो चाय मित्रों के साथ हो जाती हैं। डेढ़-दो बजे दोपहर तक रोगियों को भी देखता रहता हूँ और आभासी दुनिया में इंटरनेट के माध्यम से जुड़ा रहता हूँ। शाम को सात बजे से पहले ही भोजन कर लेता हूँ। किसी बात को मन में गाँठ बाँधकर नहीं बैठता हूँ। सोचता भी बहुत कम ही हूँ। अतः बड़ा से बड़ा नुकसान होने पर भी गर्दन झटक कर चिन्ता को हटा देता हूँ।
मित्रों यही मेरे अच्छे स्वास्थ्य का राज़ है।

Friday 26 August 2011

"एस एम मासूम साहब के जन्मदिवस पर विशेष" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')


आज 26 अगस्त को सय्यद मासूम साहब को 

उनकी यौम-ए-पैदाइश की बहुत-बहुत मुबारकवाद।

एस एम मासूम साहब से कुछ सवाल – जवाब

अपने बारे में कुछ बताएं, मसलन बचपन, पढाई और किशोरावस्था के बारे में?
मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के जौनपुर शहर मैं    1960 को एक ज़मींदार परिवार मैं हुआ था. पिताजी रेलवे मैं इंजिनियर थे और लिखने पढने मैं बहुत रूचि  रखते थे. बचपन मज़े मैं बीता, पढना लिखना और समाज सेवा करना, इसी मैं  समय गुज़र जाता था. मैं ना तो कोई साहित्यकार हूँ और ना ही बनना चाहता हूँ. बस सामाजिक सरोकारों से जुड़ कर समाज के लिए कुछ करता रहता हूँ. यही कारण है कि इस ब्लोगिंग मैं भी शोहरत के सस्ते हथकंडों से दूर रहकर ज़मीनी स्तर पे काम करने मैं अधिक रूचि रखता हूँ.

आप ने अपनी शिक्षा कहाँ से प्राप्त की?
मैंने अपना पढ़ाई  का ज़माना लखनऊ और वाराणसी मैं गुज़ारा और विज्ञान से स्नातक की डिग्री लखनऊ विश्वविद्यालय से ली. कंप्यूटर, इन्टरनेट, वेबसाइट, हार्डवेयर, सॉफ्टवेयर में स्वयं ज्ञान प्राप्त किया.

आपका व्यवसाय क्या है?
मैं बैंक मैं मेनेजर था, अब अवकाश ले लिया है और खुद का बिज़नस करता हूँ. पत्रकारिता से भी जुड़ा हूँ और बहुत से समाचार पत्रों के लिए काम करता हूँ.

बचपन का कोई ऐसा क़िस्सा जो आज भी आपने ज़ेहन में कौंधता रहता है?
जी हाँ एक दोस्त कि याद नहीं जाती दिल से. मैं उस समय लखनऊ के जुबली कॉलेज मैं कक्षा नौं का विद्यार्थी था और मेरा एक मित्र था पंकज रस्तोगी. हम दोनों फिल्म देखने गए रंगीला रतन. मध्यांतर मैं हम दोनों बाहर आये एक फ़कीर ने पैसा माँगा दुआ के साथ कि तुम्हारा भविष्य उज्जवल हो, पंकज ने कहा अरे जाओ भाई कल किसने देखा है. हम 3-6 शो  देख रहे थे.  शो ख़त्म होने के बाद हम अपने अपने घर आ गए.
रात मैं खबर आयी कि पंकज घर कि छत से गिर गया और अस्पताल मैं है. सुबह पंकज के घर वाले मेरे पास आये क्योंकि पंकज बेहोशी मैं मेरा नाम ले के पुकार रहा था, मैं 11 बजे उसके पास गया जैसे ही उसने मुझे देखा एक बार मुस्कराया और दम तोड़ दिया.यह बात मुझे कभी नहीं भूलती और यह भी कि फ़कीर को वापस ना लौटाओ और अगर कुछ ना दे सकों तो कम से कम कोई उलटी बात मत बोलो.

आप कई वर्षों से लिख रहे  हैं, लेखन से सम्बंधित कोई ऐसा संस्मरण जो भुलाये न भूलता हो?
जैसा मैंने पहले भी कहा कि मैं कोई साहित्यकार नहीं. अंग्रेजी ब्लोगिंग मैं 10 वर्षों से काम कर रहा हूँ वर्ष 2010 में हिंदी ब्लोगिंग मैं क़दम रखा है. अभी भी हिंदी ब्लॉगर्स की ज़हनियत को समझने की कोशिश कर रहा हूँ.

ब्लॉगर कैसे बने ? आप ब्लॉग-लेखन कब से कर रहे  हैं और क्यूँ कर कर रहे  हैं?
अंग्रेजी मैं ब्लोगिंग तो मैं पिछले 10-12 साल से कर रहा हूँ. हिंदी ब्लॉग जगत में मुझे इस्मत जैदी साहिबा 2010 में लाई और तभी से दोनों ब्लॉग जगत में काम कर रहा हूँ. मैं हमेशा ही इंसानियत और एकता के लिए काम करता हूँ. अभी मुझे अपने वतन का क़र्ज़ भी उतारना  है और अब उसी के लिए सक्रिय हूँ. जौनपुर ब्लॉगर एसोसिएशन बनाया और हिंदी  और  अंग्रेजी  मैं  www.jaunpurcity.in बनाई. ज़मीनी स्तर पे भी डॉ मनोज मिश्रा और दूसरे ब्लॉगर्स के साथ काम कर रहा हूँ.

वर्तमान हिन्दी ब्लॉग जगत में सामूहिक ब्लॉग की कितनी महत्ता है?
साझा ब्लॉग की महत्ता तो बहुत है लेकिन केवल उन्ही को जोड़ना चाहिए जो ब्लॉग मैं रूचि रखते हों और ब्लॉग को समय दे सकें.  साझा ब्लॉग हम वतनो को या एक विचार वालों को एक साथ जोड़ता है. इस से अधिक और क्या चाहिए.

किन्ही 5  ब्लॉगर्स का नाम बताईये जिनसे आप प्रभावित हुए बिना नहीं रहे ?
वैसे तो कई हैं इस ब्लॉगजगत मैं जिनसे मैं बहुत ही अधिक प्रभावित हूँ लेकिन आपने 5 नाम मांगे हैं तो मैं डॉ मनोज मिश्रा जी का नाम सबसे पहले लूँगा. एक सुलझा हुआ इंसान जिसने चुपचाप अपने वतन के लिए बहुत काम केवल अपने ब्लॉग से किये हैं. दूसरा नाम जनाब ज़ीशान ज़ैदी का है, यह भी विज्ञान के क्षेत्र में चुपचाप  अपना काम किया करते हैं और तीसरा नाम है हमारे कवि मित्र  कुंवर कुसुमेश जी का, जिनकी तारीफ शब्दों मैं बयान नहीं की जा सकती. चौथा नाम है डॉ  पवन मिश्रा जी का, गहराई में जाकर किसी भी विषय पर लिखते है और बेहतरीन लिखते हैं. पांचवां नाम है शिखा वार्ष्णेय, बेहतरीन लेखनी और उच्च विचार. यहाँ यह भी कहता चलूँ कि मेरी लिस्ट मैं 20-21 ब्लॉगर्स हैं और  2 तो ऐसे हैं जिनसे मेरे विचार भी नहीं मिलते लेकिन उनकी लेखनी कि धार का मैं कायल हूँ.

अपने व्यक्तिगत ब्लॉग में लेखन का मुख्य विषय / मुद्दा क्या है?
मेरे व्यक्तिगत ब्लॉग का मुख्य विषय सामाजिक मैं अमन और शांति है और मैं सामाजिक सरोकारों पे ही लिखता हूँ. भ्रष्ट समाज को बदलने कि कोशिश  करता हूँ बस.

आप कि नज़र मैं बड़ा ब्लॉगर कौन है?
बड़ा ब्लॉगर वही है जो शोहरत से, गन्दी राजनीती से दूर हट के समाज के लिए कुछ काम अपनी लेखनी का इस्तेमाल करते हुए  कर रहा है.

आज कल बड़े बड़े उत्सव, महोत्सव, ब्लॉगर मिलन हुआ करते हैं, इनाम बांटे जाते हैं. जहाँ इल्ज़ाम यह भी लगता है कि सब अपना-अपना देखते हैं. आप को कैसा लगता है?
हर इंसान को यह अधिकार है कि वो कहीं भी कोई भी मीटिंग करे, उत्सव या महोत्सव करे, खुद को ही इनाम दे डाले या अपने दोस्तों को ही इनाम दे. दूसरों के अधिकार छेत्र में जा के मैं कुछ कहना ठीक नहीं समझता.  ब्लॉगजगत को इससे बहुत फायदा होता नहीं दिखाई देता. हाँ कुछ ब्लॉगर्स के आपस के रिश्ते मज़बूत होते है, यह एक अच्छी बात है और आशा है इन रिश्तों का वो सही इस्तेमाल करेंगे.

धार्मिक-उपदेश और उनको अपने जीवन में उतारना, आज के युग में कहाँ तक सही है?
धार्मिक उपदेश कि महत्ता हर धर्म कि किताबों मैं है. आज हम ना तो ईमानदारी और सदाचारी होना पसंद करते हैं और ना ही धार्मिक उपदेशों को सुनना. यह कमी हमारी है ना कि किसी धर्म या धार्मिक उपदेशों की. धार्मिक उपदेश हमारे जीवन का आईना हैं, जिसे हमेशा देखते रहना चाहिए.

एक भारतीय महिला को कैसा होना चाहिए, कोई महिला ऐसी है जिसे आप आदर्श के रूप में प्रस्तुत कर सकें?
भारतीय महिला? शायद सही सवाल यह है कि एक महिला को कैसा होना चाहिए? आज  के  युग मैं जहाँ आधुनिक महिलाएँ कम वस्त्र धारण कर के गर्व महसूस करती हैं, इस विषय पे कुछ कहना ही  सही नहीं है. ब्लॉगजगत की तस्वीरों से देखा जाए तो रेखा श्रीवास्तव जी को देख कर ख़ुशी होती है. आदर्श महिलाएँ इस विश्व मैं बहुत सी गुज़री हैं, जिनमें से जनाब-ए मरियम और जनाब-ए फातिमा (स.ए) का नाम मैं अवश्य लूँगा.

Saturday 6 August 2011

‘‘महाकवि तुलसीदास’’ (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)


‘‘महाकवि तुलसीदास’’ 

"सूर-सूर तुलसी शशि, उडुगन केशव दास।
अब के कवि खद्योत सम, जहँ-तहँ करत प्रकाश।।’’
ब्लागर मित्रों!
आज से 20 वर्ष पूर्व मेरा एक लेख
नैनीताल से प्रकाशित होने वाले
समाचारपत्र
"दैनिक उत्तर उजाला"
में प्रकाशित हुआ था।


इसे साफ-साफ पढ़ने के लिए-
कृपया समाचार की कटिंग पर
एक चटका लगा दें।
भगवान राम की गाथा को
रामचरित मानस के रूप में
जन-जन में प्रचारित करने वाले 
महाकवि तुलसीदास की स्मृति
उर में संजोए हुए यह लेख मूलरूप में 
आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ।

Monday 1 August 2011

“मेरी पन्तनगर यात्रा” (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)

मेरी एक दिन की पन्तनगर यात्रा
बहुत दिन हो गये थे घर में पड़े-पड़े!
रोज़मर्रा का वही काम। सुबह ठना कम्प्यूटर खोलना, मेल चेक करना और ब्लॉगिंग करना। 
इस काम से अब खीझ होने लगी थी! इसलिए सोचा कि कहीं पर घूम आया जाए। 
तभी अपने शिष्य सुरेश राजपूत का फोन आ गया कि गुरू जी मेरे पास आ जाइए ! 
मेरा भी मन था कहीं घूमने जाने का। 
तब मैंने 30 जुलाई को अपराह 3 बजे कार निकाल ही ली 
और चल पड़ा पन्त नगर की यात्रा के लिए।
रास्ते में किच्छा का रेलवे क्रॉसिंग पड़ा वह बन्द था इस लिए मुझे रुकना पड़ा।
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सोचा कि कैंमरे से कुछ फोटो ही खींच लिए जाएँ।
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तभी मीटर गेज की रेलगाड़ी किच्छा की ओर से आती हुई दिखाई पड़ी!
उसके बाद मैं पन्तनगर पहुँच गया!
सीधे सुरेश जी के घर पहुँचा और पेटभर कर चाय नाश्ता किया!
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यह है सुरेश राजपूत का घर। 
दोमंजिले पर रहते हैं वो अपनी माता जी के साथ।
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सुरेश जी के घर के बाहर अमरूद के पेड़ लगे हैं।
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जिन पर अमरूद के फल लगे थे!
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खाली जगह में भिण्डी के पौधे भी लगाए हुए हैं।
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इन पर भिण्डी के फूल और कलियाँ भी दिखाई दे रहीं थीं।
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घर के बाहर रोड के किनारे नीम का एक पेड़ भी मुझे दिखाई दिया।
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जिसके नीचे ही मैंने अपनी कार खड़ी की थी।
नीम के पेड़ पर निम्बौरियाँ लदी हुई थीं और वो पर कर नीचे टपक रहीं थी।
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इसके बाद हम लोग पन्तनगर के अन्तरराष्ट्रीय अतिथि गृह में गये। 
सुरेश जी ने मेरे रात्रि विश्राम का प्रबन्ध यहाँ ही किया था।
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गेस्ट हाउस के बाहर का नजारा बहुत मनमोहक था।
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चारों ओर हरियाली ही हरियाली पसरी थी
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मैदान में चीड़ का यह विशालकाय वृक्ष 
उत्तराखण्ड के पहाड़ी राज्य का आभास करा रहा था !
सुरेश जी ने अपनी फोटो भी इसी चीड़ के पेड़ के नीचे खिंचवाई।
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इसके बाद मेरी भी फोटो सुरेश जी ने खींच ही ली!
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सुरेश राजपूत जी ने अपने घर की सीढ़ियों के साथ 
दीवार में गणेश जी की बहुत सारी पेंटिग अपने हाथों से बनाईं हैं।
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यहाँ आने और जाने पर मैं गणेश जी को प्रणाम करना न भूला!
इस प्रकार से मेरी एक दिन की पन्तनगर विश्वविद्यालय की यात्रा सम्पन्न हुई!