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Monday 24 May 2010
Friday 21 May 2010
“अब भी बाकी है, आशा की एक किरण” (डॉ0 रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक)
पिछले कई वर्षों से मैं दो-मंजिले पर रहता हूँ। मेरे कमरे में तीन रोशनदान हैं। उनमें जंगली कबूतर रहने लगे थे। वहीं पर वो अण्डे भी देते थे, परन्तु कानिश पर जगह कम होने के कारण अण्डे नीचे गिर कर फूट जाते थे। मुझे यह अच्छा नही लगता था। |
Saturday 15 May 2010
“काश् ये ज़ज्बा हमारे भीतर भी होता?” (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
सन् 1979, बनबसा जिला-नैनीताल का वाकया है। उन दिनों मेरा निवास वहीं पर था । मेरे घर के सामने रिजर्व कैनाल फौरेस्ट का साल का जंगल था। उन पर काले मुँह के लंगूर बहुत रहते थे। मैंने काले रंग का भोटिया नस्ल का कुत्ता पाला हुआ था। उसका नाम टॉमी था। जो मेरे परिवार का एक वफादार सदस्य था। मेरे घर के आस-पास सूअर अक्सर आ जाते थे। जिन्हें टॉमी खदेड़ दिया करता था । एक दिन दोपहर में 2-3 सूअर उसे सामने के कैनाल के जंगल में दिखाई दिये। वह उन पर झपट पड़ा और उसने लपक कर एक सूअर का कान पकड़ लिया। सूअर काफी बड़ा था । वह भागने लगा तो टॉमी उसके साथ घिसटने लगा। अब टॉमी ने सूअर का कान पकड़े-पकड़े अपने अगले पाँव साल के पेड़ में टिका लिए। ऊपर साल के पेड़ पर बैठा लंगूर यह देख रहा था। उससे सूअर की यह दुर्दशा देखी नही जा रही थी । वह जल्दी से पेड़ से नीचे उतरा और उसने टॉमी को एक जोरदार चाँटा रसीद कर दिया और सूअर को कुत्ते से मुक्त करा दिया। हमारे भी आस-पास बहुत सी ऐसी घटनाएँ आये दिन घटती रहती हैं परन्तु हम उनसे आँखे चुरा लेते हैं और हमारी मानवता मर जाती है। काश! जानवरों सा जज्बा हमारे भीतर भी होता? |
Saturday 8 May 2010
“साहित्य और सम्वेदना” (मयंक)
“कौन धनी और कौन निर्धन?”
आज दो संस्मरणों को प्रस्तुत कर रहा हूँ ! जो शीर्षक की पुष्टि स्वयं ही करेंगे! सन् 2007 की बात है! मेरे नगर में धनाढ्य वृद्धों ने एक संस्था का गठन किया! एक व्यक्ति ने धनाढ्य अध्यक्ष को अपने पक्ष में लेकर बाल साहित्य का कार्यक्रम करने के लिए 60-70 हजार का चन्दा संग्रह कर लिया! 50 हजार से अधिक की धनराशि का व्यय हुआ! कार्यक्रम में नगर के नागरिक 5 और बाहर के बाल-साहित्यकार 50 इकट्ठे हुए! इस संस्था के एक निर्धन सदस्य के पुत्र का एक्सीडेण्ट हुआ! डॉक्टरों ने इलाज का खर्च 1 लाख से अधिक बताया! इस सदस्य ने संस्था में गुहार की तो कंजूस अध्यक्ष ने पहले तो कहा कि सब लोग व्यक्तिगत रूप से इनकी मदद करें! मगर सदन ने जब कहा कि संस्था की ओर से भी तो सहायता होनी चाहिए! अध्यक्ष का दिल पसीजा और एक हजार रुपये संस्था की ओर से देने की घोषणा की गई! अब तो मैंने अध्यक्ष जी को सुनाना शुरू कर ही दिया- साहित्य और सम्वेदना के झूठे गाल बजाने से कुछ नही होता है! मेरी मुहिम रंग लाई और संस्था की ओर से इस निर्धन को 10 हजार की सहायता दिलवाकर ही मैंने दम लिया! |
Sunday 2 May 2010
"चौरानब्बे वर्ष की आयु में भी कुर्सी से चिपकने का जुनून उनमें था।" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
‘‘माया मरी न मन मरा, मर-मर गये शरीर। आशा, तृष्णा ना मरी, कह गये दास कबीर।।’’ कान में सुनने की बढ़िया विलायती मशीन, बेनूर आँखों पर शानदार चश्मा। उम्र चौरानबे साल। सभी पर अपने दकियानूसी विचार थोपने की ललक। घर में सभी थे बेटे-पोते, पड़-पोते, लेकिन कोई भी बुढ़ऊ के उपदेश सुनने को राजी नही। अब अपना समय कैसे गुजारें। किसी भी संस्था में जायें तो अध्यक्ष बनने का इरादा जाहिर करना उनकी हॉबी थी। आज इसी पर एक चर्चा करता हूँ। आखिर मैं भी तो इन्हीं वरिष्ठ नागरिक महोदय के शहर का हूँ। फिर अपने ही ब्लॉग पर तो लिख रहा हूँ। किसी को पसन्द आये या न आये। क्या फर्क पड़ता है? मेरे छोटे से शहर में भी एक वरिष्ठ नागरिक परिषद् है। इसके अध्यक्ष इस क्षेत्र के जाने-माने रईस हैं। ये पिछले 3 वर्षों से अध्यक्ष की कुर्सी पर कब्जा जमाये हुए हैं। एक वर्ष के अन्तराल पर जब भी चुनाव होते थे। ये पहले से ही ढिंढोरा पीटना शुरू कर देते थे कि मैं अध्यक्ष तभी बनूँगा जब मुझे सब लोग चाहेंगे। यदि एक व्यक्ति ने भी विरोध किया तो मुझे अध्यक्ष नही बनना है। इस बार के चुनाव में भी यही नाटक चलता रहा। मैंने मा. अध्यक्ष जी को सम्बोधित करके कहा- ‘‘बाबू जी आपको अध्यक्ष कौन बना रहा है? अब किसी और को मौका दीजिए। आपकी क्षत्र-छाया की हमें आज भी बहुत जरूरत है। आप तो अब संस्था के संरक्षक नही महासंरक्षक बन जाइए।’’ बाबू जी के दिल में मेरी बातें तीर जैसी चुभ गयीं। परन्तु वह बोले कुछ नही। अब अध्यक्ष पद के लिए नाम प्रस्तुत हुए। एक व्यक्ति का नाम अध्यक्ष पद के लिए आया, तो उस पर सहमति बनने ही वाली थी। तभी बाबू जी बोले- ‘‘ठहरो! अभी और नाम भी आने दो।’’ तभी उनके एक चमचे ने बाबू जी का इशारा पाकर- उनका नाम प्रस्तुत कर दिया। वोटिंग की नौबत आते देख, बाबू जी ने अध्यक्ष पद के पहले दावेदार को अपने पास बुलाया और न जाने उसके कान में क्या मन्त्र फूँक दिया। वह सदन में खड़ा होकर बोला- ‘‘अगर बाबू जी अध्यक्ष बनना चाहते हैं तो मैं अपना नाम वापिस ले लूँगा।’’ बाबू जी तो चाहते ही यही थे। फिर से अध्यक्ष पद पर अपना कब्जा बरकरार कर लिया। सदन में कई लोगों ने उठ कर कहा कि बाबू जी आप तो यह कहते थे कि अगर एक भी व्यक्ति मेरे खिलाफ होगा तो मैं अध्यक्ष नही बनना चाहूँगा। परन्तु बाबू जी बड़ी सख्त जान थे। अपने फन के माहिर थे। यह तो रही गत वर्ष की बात! इस वर्ष तो और भी मजेदार कहानी रही! इन महोदय ने अपनी सोची समझी रणनीति के अनुसार उसे ही चुनाव अधिकारी घोषित कर दिया जो कि अध्यक्ष पद का सम्भावित प्रत्याशी था! अब तो राह और भी आसान हो गई और एक वर्ष के लिए फिर से अध्यक्ष की कुर्सी पर यह पदलोलुप विराजमान हो गये! ‘‘चौरानब्बे वर्ष की आयु में भी कुर्सी से चिपकने का ग़ज़ब का जुनून था उनमें! |