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Wednesday 31 March 2010

"सिरफिरा कवि” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)

“हमारी जूती और हमारी ही चाँद”

सीमा सचदेव जी को उलाहना देते हुए 
मैंने उनके ब्लॉग नन्हा मन की 
एक पोस्ट पर 
निम्नांकित टिप्पणी की थी- 

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक ने कहा
सीमा जी नमस्कार!
आपने बहुत सुन्दर बालगीत नन्हामन पर लगाया है!
आपकी पोस्ट और ब्लॉग की चर्चा तो चर्चा मंच पर भी होती है!
मगर आप कभी भी कमेंट करने नहीं आती!
नन्हें सुमन को तो आपने कभी खोल कर भी नही देखा है।
सिरफिरे तो हम ही हैं जो यदा-कदा नन्हा मन पर आ जाते हैं!
३० मार्च २०१० ८:०५ PM
इसके प्रत्युत्तर में सीमा जी ने यह कहा-
नमस्कार शास्त्री जी ,
कैसे हैं आप ? बहुमूल्य टिप्पणी के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद । आपसे जानकारी मिल रही है कि हमारे ब्लाग की चर्चा चर्चा मंच पर होती है , मुझे इसकी जानकारी नहीं है , अब जाकर देखुंगी । आपकी नाराज़गी जायज़ है , मैं कहीं जा ही नहीं पाती हूं और कहां क्या हो रहा है मुझे पता ही नहीं चलता , इस बात का मुझे स्वयं को खेद है ( कोई सफ़ाई नहीं दूंगी ) नन्हा सुमन मैनें एक दो बार देखा है और बहुत प्यार से सजाया है आपने उसे , उसके लिए हार्दिक शुभ-कामनाएं , आपकी लेखनी का सफ़र यूंही जारी रहे , यही दुआ है । मैनें नन्हामन से आपको जोडा और आपने अपनी सहर्ष सहमति दी तो यह ब्लाग केवल मेरा नहीं आपका भी है ,अब हम तो किसी के ब्लाग पर नहीं जा पाते मजबूरीवश लेकिन आप अपनी ही ब्लाग पर यदा-कदा आते हैं । आखिरी बात कि सिरफ़िरे तो वास्तव में आप हैं , अगर सिरफ़िरे न होते तो क्या कवि होते , आपका कवि होना ही सिरफ़िरे होने का सबसे बडा सबूत है
वो कवि ही क्या , 
जो सिरफ़िरा न हो
वो लेखन ही क्या , 
जो भावों से घिरा न हो
सिरफ़िरे होने पर
 तो नाज़ है
एक कलम में 
समाया पूरा समाज़ है
अगर सिरफ़िरे न होते
तो क्या कवि होते
अगर कवि न होते तो
कोटि-२ मील दूर रवि होते
रवि को भी जिसने
शब्दों मे वश मे कर डाला
उस सिरफ़िरे को सलाम
हे सिरफ़िरे कवि
तेरी कलम को प्रणाम
तेरी कलम को प्रणाम
seema sachdev
सभी पढ़ने वालों को
इस सिरफिरे की ओर से
फर्स्ट अप्रैल की अग्रिम बधाई!

Saturday 27 March 2010

“उपयोगी शिक्षाएँ” (अनुवादकः शास्त्री “मयंक”)

परोक्षे कार्यहन्तारं,
प्रत्यक्षे प्रियवादिनम।
वर्जयेत् तादृशं मित्रं,
विषकुम्भं पयोमुखम्।।
अनुवाद:- जो पीठ पीछे कार्य में बाधा डाले और सम्मुख आने पर मीठी-मीठी बातें करे। उस मित्र को त्याग देना चाहिए। वह उस घड़े के समान होता है जिसके भीतर विष भरा होता है और उसके मुँह में दूध लगा होता है!
यावद् भयेत् भेतव्यं,
तावद् भयं अनागतम्।
आगतं तु भयं दृष्ट्वा,
प्रहृतव्यं किं शंकयाः।।
अनुवाद:-
तब तक भयभीत न हों, जब तक भय सामने नही आ जाता। जैसे ही भय सामने आता दिखाई पड़े, उसका मुकाबला करने में कैसी शंका ? अर्थात् भय से भयभीत नही होना चाहिए!
उद्यमेन हि सिध्यन्ति,
कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य,
प्रविशन्ति मुखे मृगाः।।
अनुवाद:-
कार्य परिश्रम से सिद्ध होते हैं, मनोरथ से नही। क्योंकि सोये हुए जंगल के राजा शेर के मुख में भी हिरण स्वयं आकर प्रविष्ट नही होते हैं।
रूपयौवनसम्पन्नाः,
विशालकुलसम्भवाः।
विद्याहीनाः न शोभन्ते,
निर्गन्धाः इव किंशुकाः।।
अनुवाद:- रूप और यौवन से सम्पन्न, विशालकुल में जन्म लेने वाला भी बिना विद्या के सुशोभित नही होता। वह उस टेसू के फूल के समान होता है। जिसमें रूप तो होता है परन्तु सुगन्ध नही होती! 
विद्वत्त्वं च नृपत्वं च,
नैव तुल्यं कदाचन्।
स्वदेशे पूज्यते राजा,
विद्वान् सर्वत्र पूज्यते।।
अनुवाद:- विद्वान् और राजा की कभी भी तुलना नही की जा सकती। क्योंकि राजा केवल अपने देश में पूज्य होता है और विद्वान की सर्वत्र पूजा की जाती है।

Wednesday 24 March 2010

“उत्तराखण्ड का प्रवेश-द्वार” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)

बरेली से पिथौरागढ़ राष्ट्रीय-राजमार्ग पर
विगत दो वर्षों से मुँह चिढ़ाता
उत्तराखण्ड का प्रवेश-द्वार
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बरेली के रास्ते कभी आप उत्तराखण्ड पधारें तो-

उत्तर-प्रदेश के मझोला कस्बे से थोड़ा सा आगे निकलने पर उत्तराखण्ड की सीमा में प्रवेश करते ही यह खण्ड-खण्ड प्रवेश द्वार आपका स्वागत करता हुआ मिलेगा!
ऐसा नही है कि मण्डी समिति के के पास इस बोर्ड को ठीक कराने के लिये धन नही है!
किन्तु मुख्य बात तो यह है कि भिखारियों के घर यदि बाहर से सुन्दर होंगे तो उन्हें भिक्षा कौन देगा?
जबकि भीतर से इनके घर बड़े शानौ-शौकत से परिपूर्ण होते हैं!
बस इतना ही इशारा काफी है!
माँ पूर्णागिरि के दर्शनों को इसी मार्ग से अधिकांश दर्शनार्थी आते हैं! शायद वो अपने छोटे भाई की दुर्दशा पर तरस खा कर अधिक से अधिक चढ़ावा उत्तराखण्ड के पुजारियों को ………!

Saturday 20 March 2010

“हिन्दी व्याकरण” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)

“हिन्दी में रेफ लगाने की विधि”
अक्सर देखा जाता है कि अधिकांश व्यक्ति आधा "र" का प्रयोग करने में बहुत त्रुटियाँ करते हैं। उनके लिए व्याकरण के कुछ सरल गुर प्रस्तुत कर रहा हूँ!

रेफ लगाने की विधि


हिन्दी में रेफ  अक्षर के नीचे “र” लगाने के  लिए सदैव यह ध्यान रखना चाहिए कि ‘र’ का उच्चारण कहाँ हो रहा है ? 

यदि ‘र’ का उच्चारण अक्षर के बाद हो रहा है तो रेफ की मात्रा सदैव उस अक्षर के नीचे लगेगी जिस के बाद ‘र’ का उच्चारण हो रहा है । 
उदाहरण के लिए - प्रकाश, सम्प्रदाय, नम्रता, अभ्रक, चन्द्र आदि । 

 हिन्दी में रेफ या अक्षर के ऊपर  "र्" लगाने के  लिए सदैव यह ध्यान रखना चाहिए कि ‘र्’ का उच्चारण कहाँ हो रहा है ?  “र्"   का उच्चारण जिस अक्षर के पूर्व हो रहा है तो रेफ की मात्रा सदैव उस अक्षर के ऊपर लगेगी जिस के पूर्व ‘र्’ का उच्चारण हो रहा है । 
उदाहरण के लिए - आशीर्वाद, पूर्व, पूर्ण, वर्ग, कार्यालय आदि ।   
रेफ लगाने के लिए आपको केवल यह अन्तर समझना है कि जहाँ पूर्ण "र" का उच्चारण हो रहा है वहाँ सदैव उस अक्षर के नीचे रेफ लगाना है जिसके पश्चात  "र"  का उच्चारण हो रहा है । 
जैसे - प्रकाश, सम्प्रदाय, नम्रता, अभ्रक, आदि में "र" का पूर्ण उच्चारण हो रहा है ।    

Monday 15 March 2010

“मेरी पौत्री का जन्म-दिन”

कल 14 मार्च को
मेरी पौत्री प्राची का
7वाँ जन्म-दिन था!
”अमर भारती” ब्लॉग पर
पोस्ट लगाई थी!
लेकिन न जाने
वो कैसे उड़ गई!
उसी के आग्रह पर
यह पोस्ट यहाँ लगा रहा हूँ-

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Tuesday 2 March 2010

“सामान सौ बरस का, पल की खबर नही!” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री “मयंक”)

“मत्यु का समय निश्चित है!”

आज दो घटनाक्रम सुनाने का मन है-
1- पाण्ड्वों के अज्ञातवास के समय बियाबान जंगल में जब पाँचों भाइयों को प्यास ने सताया तो युधिष्ठिर ने पानी लाने के लिए क्रम से सभी भाइयों को भेजा परन्तु एक भी लौटकर नही आया!
अब स्वयं युधिष्ठर पानी लाने और भाइयों की खोज में निकल पड़े!
कुछ दूर पर उन्हें एक स्वच्छ जल का सरोवर दिखाई दिया! सरोवर के समीप जाने पर उन्होंने देखा कि चारों भाई यहाँ मूर्छित पड़े हुए हैं!
युधिष्ठर को भी बहुत जोर की प्यास लगी हुई थी अतः वब जैसे ही जल की ओर बढ़े- एक यक्ष की आवाज उन्हे सुनाई दी!
”सावधान! पानी को हाथ मत लगाना! पहले मेरे प्रश्नों के उत्तर दो! बाद में पानी लेना! अन्यथा तुम्हारा भी हाल तुम्हारे भाइयों जैसा हो जायेगा!”
युधिष्ठर रुक गये और यक्ष से कहा कि प्रश्न पूछिए-
यक्ष ने युधिष्ठर से बहुत से प्रश्न किये जिनमें से एक प्रश्न था- “किम् आश्यर्यम्?” (आश्चर्य क्या है?)
युधिष्ठर ने इसका उत्तर दिया- “संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि प्रत्येक जीवित प्राणी अपने को अमर समझता है!”

2- एक बार मृत्यु के देवता यमराज किसी कार्यक्रम में पधारे!
जब वे अपने आसन की ओर जा रहे थे तो उनकी नजर कबूतर के एक जोड़े पर पड़ी! कबूतरों को देखकर वे बहुत जोर से हँसे!
गरुड़ ने जब यह देखा तो मन में सोचा कि इन कबूतरों का अन्त समय आ गया है! यदि इनकी मृत्यु की घड़ी टल जाये तो अच्छा है!
गरुड़ की उड़ने की गति कई हजार मील प्रति घण्टा होती है। अतः गरुड़ जी इन कबूतरों को लेकर कैलाश मानसरोवर की ओर चले गये। वहाँ इ्न्होंने कबूतरों को एक गुफा में छिपा दिया और तत्काल सभा मे लौटकर आ गये!
कार्यक्रम समाप्त होने पर जव यमराज उठकर जाने लगे तो देखा कि कबूतर अपने स्थान पर नहीं हैं! इससे यमराज चिन्तित हुए तो अब गरुड़ जी बहुत जोर से हँसे!
यमराज ने गरुड़ से पूछा कि तुमने कबूतरों को कहाँ छिपाया है?
गरुड़ बोले- महाराज! जब तक आप उन तक पहुँचोगे तब तक मृत्यु की घड़ी टल चुकी होगी! इसलिए मैंने उन्हें कैलाश मानसरोवर के पास एक गुफा में छिपा दिया है!
इस पर यमराज बोले- “गरुड़ जी आपने मेरी बहुत बड़ी समस्या हल कर दी है। इन कबतरों की मृत्यु तो कैलाश मानसरोवर के समीप पड़ने वाली गुफा में ही लिखी हुई है!
मैं तो सोच रहा था कि इन कबूतरों को कैसे गुफा तक ले जाऊँ!”
अब गरुड़ अपना माथा पकड़ कर बैठ गये!
कहने का तात्पर्य यह है कि मृत्यु की घड़ी तथा स्थान पहले से ही निर्धारित होता है! मगर प्राणी को इसका ज्ञान नही होता है! क्योंकि वह तो अपने को अमर समझता है!
इसीलिए तो किसी शायर ने कहा है-
“सामान सौ बरस का, पल की खबर नही!”